Thursday, 1 December 2011

ज़ुर्म है ख़ुदकुशी है


ज़ुर्म  है  ख़ुदकुशी  है  बुरी    मैकशी |
तुझसे रूठें तो हम क्या करें ज़िंदगी ||

फ़स्ल लाशों की लहरा  रही  चार  सूँ |
सरफिरों ने बमों की वो बरसात  की ||

बेबसी का सहारा जो थी  अब  तलक |
अब   वो बैसाखी भी    टूटने को चली ||

आपसी  रिश्ते  जाते  कभी  के  सुधर |
कुछ तुम्हारी कमी कुछ हमारी कमी ||

खो  गयी  शहर की इस चकाचोंध  में |
गावँ के घर की छत  चाँद की चाँदनी ||

प्यार  भाई  का  सारा  धरा  रह  गया |
मैंने हिस्से की अपनी ज़मीं मांग ली ||

अब  यहाँ फिर वहाँ भागता फिर रहा |
कितना बेचैन है ? आजकल आदमी ||

प्यार होता है कैसा ? दिखायेंगे  हम |
गावँ में तुम हमारे तो  आना  कभी ||

फोन पर,नेट पर और बाईक पे  भी |
बढ़ गयी आज बच्चों की आवारगी ||

डा० सुरेन्द्र  सैनी   

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