Friday, 2 December 2011

उसूलों से कभी


उसूलों  से  कभी  गिरना  गवारा  कर  नहीं  सकते |
वे  ही इंसान मर कर भी जहाँ में  मर  नहीं  सकते ||

तुम्हे  ख़ुद से ज़ियादा प्यार तो हम कर नहीं सकते |
तुम्हारा  हुस्न  बाँका  है  मगर हम मर नहीं सकते ||

मनाते  हैं  उन्हें  जब  भी  वो  हम  से  रूठ  जाते  हैं |
कलेजे  पर  यूं  हम  भी यार पत्थर धर नहीं सकते || 

बड़े  ही  ख़ूबरू  हो  तुम  ज़माना  तो  कहे    लेकिन |
बुरा  मानो  न  हम  तारीफ़  झूठी  कर नहीं  सकते || 

किसी की मांग कुछ भी हो अगर जायज़ हो तो माने |
बिठा कर ज़िन्दगी भर पेट उसका  भर नहीं  सकते || 

करें हम उतना ही वादा निभाना  जितना हो बस में |
कभी औक़ात से बढ़ कर के वादा  कर नहीं  सकते || 

मुक़द्दर का लिखा मिलना है सबको ये सुना हमने |
मुक़द्दर के मगर हाथों में ख़ुद को धर  नहीं सकते || 

हमारा  प्यार  है  सबसे  निग़ाहों   में  शरम भी  है |
मगर हम यूँ किसी के ख़ौफ़ से तो डर नहीं सकते || 

डा० सुरेन्द्र  सैनी   

Thursday, 1 December 2011

ज़ुर्म है ख़ुदकुशी है


ज़ुर्म  है  ख़ुदकुशी  है  बुरी    मैकशी |
तुझसे रूठें तो हम क्या करें ज़िंदगी ||

फ़स्ल लाशों की लहरा  रही  चार  सूँ |
सरफिरों ने बमों की वो बरसात  की ||

बेबसी का सहारा जो थी  अब  तलक |
अब   वो बैसाखी भी    टूटने को चली ||

आपसी  रिश्ते  जाते  कभी  के  सुधर |
कुछ तुम्हारी कमी कुछ हमारी कमी ||

खो  गयी  शहर की इस चकाचोंध  में |
गावँ के घर की छत  चाँद की चाँदनी ||

प्यार  भाई  का  सारा  धरा  रह  गया |
मैंने हिस्से की अपनी ज़मीं मांग ली ||

अब  यहाँ फिर वहाँ भागता फिर रहा |
कितना बेचैन है ? आजकल आदमी ||

प्यार होता है कैसा ? दिखायेंगे  हम |
गावँ में तुम हमारे तो  आना  कभी ||

फोन पर,नेट पर और बाईक पे  भी |
बढ़ गयी आज बच्चों की आवारगी ||

डा० सुरेन्द्र  सैनी   

Wednesday, 30 November 2011

जल्वा तेरी दीद का


जल्वा तेरी दीद का मुझको भी मिल जाता अगर |
क्या बिगड़  जाता तेरा मेरी  गली  आता  अगर ||

रख  न  पाया  मैं  ख़्यालों  में  कभी  संजीदगी |
आज बन जाता ख़ुदा मैं भी सुधर पाता  अगर ||

तू भी ख़ुद महसूस करता दिलजलों के दर्द को |
मैकदे  में एक दिन तू  बैठ  कर  आता  अगर ||

ज़लज़ला सा आ गया है एक ही बस  चोट  में | 
हश्र क्या होता मुसलसल चोट तू खाता अगर ||

बारहा दर पर तेरे सजदा न  करता  मैं   कभी |
तुझसे जन्मों का कभी होता न ये नाता अगर ||

डा०  सुरेन्द्र  सैनी      

Friday, 24 June 2011

ग़ज़लियात


वो गए क्या नज़र को बचा कर दिल में तूफ़ान  सा  उठ गया है |
दूर जाकर  मुड़े  मुस्कुरा  कर   दिल में तूफ़ान   सा    उठ गया है ||

अब तलक तो थे हम इस भरम में प्यार का नाम ही ज़िन्दगी है |
जब से देखा है दिल को लगा कर दिल में तूफ़ान सा उठ गया है ||

हम  रदीफ़ों  में  उलझे  पड़े  थे सबने कह डाली   ग़ज़लें मुक़म्मल |
चल पड़े अपनी -अपनी सुना कर दिल में तूफ़ान   सा उठ गया है ||

ज़िन्दगी  में  किसी  से  न  हारे  ये  मगर  जब  से  औलाद    आई |
ऐसा  रक्खा  है  हमको  घुमा कर   दिल में तूफ़ान   सा उठ गया है ||

कहने    बैठे  ग़ज़ल  ज़िन्दगी  की  बीच  रस्ते  क़लम  थम  गई है  |
हमने देखा  उसे  गुनगुना कर   दिल  में  तूफ़ान   सा  उठ  गया  है ||

                                                                                             डा० सुरेन्द्र सैनी 


याद  आने   लगी  है  किसी  की गोया मसरूफ़  हम हो गए हैं |
दास्ताँ  चल  पड़ी  ज़िन्दगी  की गोया  मसरूफ़   हम हो गए हैं ||

जाने  कब  से  पड़ा था निठल्ला तन के कोने में  बेकार ये दिल |
राह   पर   अब   है  ये  बंदगी की गोया  मसरूफ़ हम हो गए हैं ||

मिलने  जुलने   लगे   दोस्तों   से  आने  जाने   लगे महफ़िलों  में |
खै़रियत   पूछते  हैं   सभी   की  गोया   मसरूफ़ हम  हो गए हैं ||

छा  गए   थे   घनेरे   जो   बादल   अब   सभी  दूर  जाने  लगे  हैं |
बात   अब   हो   रही   रौशनी   की  गोया मसरूफ़ हम हो गए हैं ||

जिससे क़ायम है इस दिल की धड़कन नूर आँखों   में ठहरा हुआ है |
आरज़ू  है  फ़क़त  इक  उसी  की  गोया   मसरूफ़  हम  हो  गए हैं ||

                                                                                                     डा० सुरेन्द्र सैनी 


बड़ी उलझन  में  फंस बैठा तुम्हारी आरज़ू    कर के |
फ़साना  इश्क़  का बरसों  पुराना   फिर शुरू कर के ||

ये मेरा दिल फ़क़त दिल है शिवाला है न मस्ज़िद है |
चले   आओ   ज़रूरी   है  नहीं  आना  वजू    कर  के ||

मेरे  दिल  में  उतर  आई    तेरे  एहसास  की  ख़ुशबू |
हवाएं  आ  रहीं  शायद  तेरे  दामन  को  छू  कर के ||

तेरे   चर्चे  करेगें   लोग   सदियों   तक   ज़माने     में |
कभी  मिलने  का  वादा  यार  पूरा  देख  तू   कर के ||

नहीं  हम  वो  नहीं  हरगिज़  कि  जैसा आपने सोचा |
घडी  भर  को  ज़रा  हमसे  तो  देखो गुफ़्तगू  कर के ||

मुझे  डर  है  कहीं  फिर  आज  अनहोनी  न  हो  जाये |
बड़ी  मुश्किल  से  लाया   हूँ मैं दामन को रफ़ू  कर के ||

                                                                                   डा० सुरेन्द्र सैनी  

ग़ज़लियात

ए  दोस्त   मेरे   पास   आ  अब दम निकल रहा |
फिर  गीत  कोई  गुनगुना अब  दम निकल  रहा ||

जिसकी    तलाश  में   रहा   हूँ मैं   तमाम   उम्र |
उसको कहीं से भी दो बुला अब दम निकल रहा ||

शिक़वे  गिलों  का  सिलसिला    चलता रहा सदा |
आ जा कि यार क्या गिला अब दम निकल रहा ||

जाने  नज़र    क्यूँ   आपसे मिलकर न मिल सकी |
आखों में झाँक  ले  ज़रा  अब  दम   निकल रहा ||

तेरी    इनायतों      का   मैं   कायल   रहा   सदा |
माथे  पे  हाथ  दे  लगा  अब   दम   निकल रहा ||

                                                                           डा० सुरेन्द्र सैनी 

साथ  तेरा   मिला   ए  मेरे  हमसफ़र |
हौसला  मिल  गया  ए मेरे  हमसफ़र ||

आज  लोगों से उनकी ख़ुशी छिन गई |
तू  जो   मेरा  हुआ   ए  मेरे हमसफ़र ||

बेख़ुदी   में    क़दम     लडखडाने   लगे |
हाथ   अपना  बढा  ए  मेरे   हमसफ़र ||

अब  तो  हर नाख़ुदा से यकीं उठ गया |
तू   ही   बन  नाख़ुदा  ए मेरे हमसफ़र ||

मेरी सासों का तू सिलसिला बन   गया |
तू   न   होना  जुदा  ए  मेरे  हमसफ़र ||

                                                             डा० सुरेन्द्र सैनी 


टीस जब दिल में उठे  कोई ग़ज़ल  कह लेना |
आग सीने  में   लगे   कोई  ग़ज़ल कह लेना ||

प्यार बांटो  सदा  नफरत  से क्या मिला भाई |
घर किसी का जो बसे  कोई  ग़ज़ल कह लेना ||

देख  कर  जिसकी  आँखों  में सुकूँ मिलता हो |
ऐसा रस्ते  में  मिले   कोई  ग़ज़ल  कह लेना ||

तीरगी  को  मिटाने  जब खुला परचम   लेकर |
हौसला  मंद  चले    कोई   ग़ज़ल  कह  लेना ||

ज़िन्दगी में किसी कि आँख को रौशन करिए |
जब दुआ उसकी फले  कोई  ग़ज़ल कह लेना ||

लाख  गुलचीं  हों  मगर अपनी हरी डाली पर |
फूल  इतरा  के  खिले  कोई  ग़ज़ल कह लेना || 

                                                                        डा० सुरेन्द्र सैनी