Friday, 20 January 2012

पास सबके न


पास  सबके   न   बैठता  हूँ   मैं |
लोग  कहते  हैं   नकचढा हूँ  मैं ||

आज  बच्चों  ने  फीस  मांगी  है |
जेब    ख़ाली   टटोलता   हूँ    मैं ||

हो  गयी  चूक  तो  कहीं  मुझसे |
सोच कर ख़ुद को कोसता हूँ मैं ||

गीत  गाऊँ   वतन   परस्ती  के |
क्यूँ समझते हो सरफिरा हूँ  मैं ?

रोज़  हाथों  की  इन  लकीरों  में |
एक     बदलाव   ढूंढता   हूँ    मैं ||

सबने    अपने   हुक़ूक   मांगे  हैं |
टुकड़ों - टुकड़ों में बँट चुका हूँ मैं ||

मेरे नक़्शे क़दम पे मत चलना |
अपने  बेटे  को  बोलता  हूँ  मैं ||

ये ख़लल सा हुआ ज़िहन में क्यूँ ?
उफ़  ! ये क्या सोचने लगा हूँ मैं ?

डा० सुरेन्द्र  सैनी 

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