सब की आँखों को सालता हूँ मैं |
एक राह -ए - गुबार सा हूँ मैं ||
गिन चुका कितने गाम मंज़िल के |
पर जहाँ का तहाँ मिला हूँ मैं ||
फूटना ही तो जिसकी है क़िस्मत |
चलते पाओं का आबला हूँ मैं ||
ये हवाएं मुझे भी हों मुआफ़िक़ |
इक शरर राख में दबा हूँ मैं ||
पूछना है तो पूछ लो मुझ से |
सब ग़मों का फ़क़त पता हूँ मैं ||
आसमाँ तक कभी नहीं पहुंचा |
जब भी पत्थर उछालता हूँ मैं ||
रोज़ पलती है रोज़ मिटती है |
हर नयी आस पर टिका हूँ मैं ||
डा० सुरेन्द्र सैनी
No comments:
Post a Comment