Friday, 27 January 2012

उस सितमगर


उस सितमगर से हर इक मुलाक़ात में |
ग़म  ही  ग़म  पाए  हैं हमने सौग़ात में ||

हर  लम्हा  सांस घुटती सी महसूस हो |
क्या  जियेगा  कोई  एसे   हालात   में ||

मीठी बातों का उसकी करो मत यक़ीं |
है शरारत निहां  उसकी हर बात   में ||

अब ख़ुदाया न  कोई  शिकायत करो |
वस्ल के  इन हसीं चंद   लम्हात  में ||

हुस्न  को  देख   इतने  पसीने   छुटे |
जैसे भीग आये हों भारी बरसात में ||

डा० सुरेन्द्र  सैनी 

Wednesday, 25 January 2012

क्या ख़्यालों से


क्या    ख़्यालों   से  खोखला  हूँ  मैं ?
इन   सवालात   से   घिरा    हूँ  मैं ||

आज   मेरा  वजूद   क्या  कुछ  है ?
आईने    से    ये    पूछता    हूँ   मैं ||

मेरी    हस्ती    उबर    नहीं    पाई |
दर्द   के   बोझ   से   लदा   हूँ    मैं ||

ख़ुद से बाहर  नहीं  निकल  पाता |
ख़ुद में सिमटा  सा  दायरा  हूँ  मैं ||

अपनी   तक़दीर   के  सितारों  में |
इक   बुलंदी   को   ढूंढता   हूँ   मैं ||

वक़्त   एसा   भी   मैंने   देखा    है |
ग़र्क़   होने   से   बस   बचा  हूँ  मैं ||

बिन रुके  रोज़ चल रहा  अब तक |
आज  भी   एक   फ़ासिला   हूँ  मैं ||

डा०  सुरेन्द्र  सैनी   

Friday, 20 January 2012

पास सबके न


पास  सबके   न   बैठता  हूँ   मैं |
लोग  कहते  हैं   नकचढा हूँ  मैं ||

आज  बच्चों  ने  फीस  मांगी  है |
जेब    ख़ाली   टटोलता   हूँ    मैं ||

हो  गयी  चूक  तो  कहीं  मुझसे |
सोच कर ख़ुद को कोसता हूँ मैं ||

गीत  गाऊँ   वतन   परस्ती  के |
क्यूँ समझते हो सरफिरा हूँ  मैं ?

रोज़  हाथों  की  इन  लकीरों  में |
एक     बदलाव   ढूंढता   हूँ    मैं ||

सबने    अपने   हुक़ूक   मांगे  हैं |
टुकड़ों - टुकड़ों में बँट चुका हूँ मैं ||

मेरे नक़्शे क़दम पे मत चलना |
अपने  बेटे  को  बोलता  हूँ  मैं ||

ये ख़लल सा हुआ ज़िहन में क्यूँ ?
उफ़  ! ये क्या सोचने लगा हूँ मैं ?

डा० सुरेन्द्र  सैनी 

Wednesday, 18 January 2012

कोई मिहतर


कोई  मिहतर  सड़क  पर  जब लगा  जारूब जाता  है |
किसी   के  आने  की  उम्मीद  में  मन  डूब  जाता  है ||

घड़ी  अक्सर  वो  लोगों  के  लिए   मनहूस  होती   है |
मुसीबत   में    अकेला  छोड़  जब  महबूब  जाता  है ||

बुलाऊँ   पास   जब  भी  अपने  आने  से  वो  कतराए |
अगरचे  ग़ैर  की  महफ़िल  में  तो  वो  ख़ूब  जाता  है ||

ख़बर राहत की टी.वी. पर या फिर अखबार में पढ़ कर |
गरानी    का   सताया   आदमी    अब  ऊब   जाता   है ||

इलाक़ा  भूखे   नंगों   का   मगर  नेताओं  की  ख़ातिर |
हमेशा    गाड़ियां    भर -भर    वहाँ  मश्रूब    जाता  है ||

कलेजा  मुंह  को  आता  है  हमारा  देख  कर  ये  जब |
सियासी    दंगों    में    मारा   कोई  मन्कूब  जाता  है ||

चलाते  रहना  अपने  हाथों  पाओं  को  किनारे  तक |
कभी   तैराक  साहिल  पे  भी  आकर  डूब  जाता  है ||

डा० सुरेन्द्र  सैनी 

Tuesday, 17 January 2012

सब की आँखों


सब  की  आँखों  को  सालता हूँ मैं |
एक   राह -ए - गुबार   सा   हूँ  मैं ||

गिन चुका कितने गाम मंज़िल के |
पर  जहाँ   का   तहाँ  मिला  हूँ  मैं ||

फूटना ही तो जिसकी है क़िस्मत |
चलते  पाओं  का  आबला  हूँ   मैं ||

ये  हवाएं  मुझे भी हों मुआफ़िक़ |
इक  शरर  राख  में  दबा  हूँ   मैं ||

पूछना   है   तो  पूछ  लो मुझ से |
सब  ग़मों  का फ़क़त पता हूँ मैं ||

आसमाँ  तक  कभी नहीं पहुंचा |
जब  भी पत्थर उछालता हूँ  मैं ||

रोज़ पलती  है रोज़ मिटती  है |
हर नयी आस पर टिका हूँ  मैं ||

डा०  सुरेन्द्र  सैनी 

Friday, 2 December 2011

उसूलों से कभी


उसूलों  से  कभी  गिरना  गवारा  कर  नहीं  सकते |
वे  ही इंसान मर कर भी जहाँ में  मर  नहीं  सकते ||

तुम्हे  ख़ुद से ज़ियादा प्यार तो हम कर नहीं सकते |
तुम्हारा  हुस्न  बाँका  है  मगर हम मर नहीं सकते ||

मनाते  हैं  उन्हें  जब  भी  वो  हम  से  रूठ  जाते  हैं |
कलेजे  पर  यूं  हम  भी यार पत्थर धर नहीं सकते || 

बड़े  ही  ख़ूबरू  हो  तुम  ज़माना  तो  कहे    लेकिन |
बुरा  मानो  न  हम  तारीफ़  झूठी  कर नहीं  सकते || 

किसी की मांग कुछ भी हो अगर जायज़ हो तो माने |
बिठा कर ज़िन्दगी भर पेट उसका  भर नहीं  सकते || 

करें हम उतना ही वादा निभाना  जितना हो बस में |
कभी औक़ात से बढ़ कर के वादा  कर नहीं  सकते || 

मुक़द्दर का लिखा मिलना है सबको ये सुना हमने |
मुक़द्दर के मगर हाथों में ख़ुद को धर  नहीं सकते || 

हमारा  प्यार  है  सबसे  निग़ाहों   में  शरम भी  है |
मगर हम यूँ किसी के ख़ौफ़ से तो डर नहीं सकते || 

डा० सुरेन्द्र  सैनी   

Thursday, 1 December 2011

ज़ुर्म है ख़ुदकुशी है


ज़ुर्म  है  ख़ुदकुशी  है  बुरी    मैकशी |
तुझसे रूठें तो हम क्या करें ज़िंदगी ||

फ़स्ल लाशों की लहरा  रही  चार  सूँ |
सरफिरों ने बमों की वो बरसात  की ||

बेबसी का सहारा जो थी  अब  तलक |
अब   वो बैसाखी भी    टूटने को चली ||

आपसी  रिश्ते  जाते  कभी  के  सुधर |
कुछ तुम्हारी कमी कुछ हमारी कमी ||

खो  गयी  शहर की इस चकाचोंध  में |
गावँ के घर की छत  चाँद की चाँदनी ||

प्यार  भाई  का  सारा  धरा  रह  गया |
मैंने हिस्से की अपनी ज़मीं मांग ली ||

अब  यहाँ फिर वहाँ भागता फिर रहा |
कितना बेचैन है ? आजकल आदमी ||

प्यार होता है कैसा ? दिखायेंगे  हम |
गावँ में तुम हमारे तो  आना  कभी ||

फोन पर,नेट पर और बाईक पे  भी |
बढ़ गयी आज बच्चों की आवारगी ||

डा० सुरेन्द्र  सैनी